सदियों से भारतीय सभ्यताओं में विवाह के समय वर पक्ष को वधु पक्ष द्वारा धन, ज़ेवर, गाड़ी आदि दहेज़ के रूप में देने का रिवाज़ रहा है ।यह प्रथा बुनियादी तौर पर, वधु का नए घर में सम्मान स्थापित करने में एवं पति को आर्थिक रूप से एक मज़बूत सहारा देने के लिए रची गयी थी। लेकिन आज के आधुनिक समय में जहाँ पर महिला सशक्तिकरण अपना विशाल रूप ले चुकी है, महिलाएं पुरुषों के बराबर, कंधे से कंधा मिलाकर चलने में सक्षम हैं। वहीं यह प्रथा मात्र रूढ़िवादिता तक सीमित नहीं रही, बल्कि अब गंभीर रूप से हानिकारक बन चुकी है। वर पक्ष का वधु के परिवार पर दहेज का दबाव डालना ताकि समाज में उनकी नाक ऊँची रहे, ऐसे किस्से रोज़ सुनने को मिलते हैं।
इस तरह की घटनाएँ एक सभ्य समाज के लिए एक धब्बा है और गाल पर तमाचे से कम नहीं। विवाह जैसा पवित्र उत्सव जब सुनार की तकड़ी पर आ पहुंचे, ये कोई अच्छा संकेत नहीं। नया जोड़ा जो अभी एक दूसरे की आदतों, विचारधारा और जीवन से अवगत हो ही रहा होता है , उनके बीच दहेज एक काफी बड़ा अंतर खड़ा कर सकता है। जैसे ही युवा शिक्षा और व्यवसाय पर ध्यान केंद्रित करता है, परिवार उसे 'तगड़े दहेज' की प्रेरणा में उलझा देता है। इससे जीवन की शांति डगमगाती है, क्योंकि आत्मिक स्तर के संबंध विवाह की सामाजिक व्यवस्था से कहीं अधिक श्रेष्ठ और पवित्र होते हैं। विवाह आत्मिक बंधन है, लेन-देन का साधन नहीं। न जाने कितनी सदियों से इस मस्तिष्कीय भ्रम ने, करोड़ों युवाओं को चंद पैसों के लालच में डाल दिया है, जबकि ये युवा खुद ही फूर्ति, उमंग एवं उत्साह का मालिक है ।
वहीं अगर यही युवा प्रण कर ले तो दहेज के रूप में मिलने वाले धन/वस्तुओं से कहीं ज्यादा धन, खुद की मेहनत से कमा सकता है। पनप रही लैंगिक असमानता की नानी दहेज़ प्रथा ही है। घर में जब लक्ष्मी जन्म लेती है तो उसी समय नन्ही जान के ऊपर वो मूल्य आंक दिया जाता है जो उसके दहेज में लगेगा। वो नन्हींसी परी, अपना पूरा बचपन और किशोरावस्था एक मौन के साये में व्यतीत करती है । पराया धन समझे जाने के कारण उसकी शिक्षा पर भी कोई उचित निवेश नहीं किया जाता है, अतः बचा हुआ जीवन ससुराल की रसोई में चूल्हे के आगे बीत जाता है।
इस एक प्रथा ने बेटी और माँ-बाप के बीच भावनात्मक दूरी पैदा करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। हद तो तब हो जाती है जब ये शिकवे, विवाह के बाद भी छोड़े नहीं जाते । किसकी बहु कितना सामान लेकर आयी है, गाँव-देहात में ये चर्चा का विषय बन जाता है। चौराहे से गुज़रते पुरुष को चार लोग कितना सम्मान देंगे, ये उसके घर दहेज में आई नई अलमारी, गाड़ी एवं बर्तनों पर निर्भर करता है। विवाह के वर्षों बाद भी, अगर किसी और के घर अधिक दहेज़ पहुँच जाता है तो सासु जी अपनी बहू को तंज कसने में पीछे नहीं रहती। यहाँ तक कि बहुओं को शारीरिक प्रताड़ना दिए जाने के अनगिनत किस्से भी सुने गए हैं और नव विवाहित महिला को बेरहमी से मार दिये जाने वाली जैसी खबरें साफ़ दर्शा देती हैं कि इस प्रथा की पीठ पर खून के निशान हैं ।
जब एक बाप समाज में ऐसी घटनाएं होते देखता है तो दिल घबराना जायज़ है। जब संतान पैदा होने वाली होती है तो एक स्वस्थ लड़के होने की दुआ करी जाती है और जब एक बेटी जन्म लेती है तो इन सब प्रताड़ना का दुःख उसे भोगने देने से बेहतर विकल्प उसके नाज़ुक मुँह में कांच के टुकड़े डाल देना लगता है। उत्तर भारत के कई राज्य जैसे उत्तर प्रदेश, राजस्थान एवं हरियाणा में भ्रूण हत्या एक आम बात हो गयी थी। लिंग अनुपात दर्शाने लगा था कि देश में लड़कियां तो बाघ की तरह विलुप्त होने लगी हैं। बहुत सारे गाँव में वर्षों-वर्षों तक बारात नहीं आयी। 2011 सेंसस की एक रिपोर्ट के अनुसार, हरियाणा में हर 1000 पुरुषों के मध्य केवल 879 महिलाएं रह गयी थीं। जब मनुष्य अपनी सीमाएँ भूल जाता है, तब प्रकृति जन-जीवन को सुनियोजित तरीके से चलाने के लिए खुद हस्तक्षेप करती है। अपने आप स्वचलित कार्यों को तो विज्ञान उसे प्रकृति की परिभाषा दे देता है लेकिन असल में वो खुद ईश्वर होते हैं जो स्वंय इंसानियत की रक्षा के लिए कई रूपों में आकार हस्तक्षेप करते हैं।
आज बहुत सारी संस्थाएं इस सामाजिक कुरीति से लड़ने के लिए डटकर खड़ी हैं एवं विभिन्न क्षेत्रो में अलग-अलग तरीके महिलाओं के मौलिक अधिकारों को सुरक्षित रखने में मदद कर रही हैं । वहीं, इनमें से एक है- “डेरा सच्चा सौदा” जो हरियाणा के सिरसा जिले में स्थापित है और वर्तमान में बाबा गुरमीत राम रहीम जी के मार्गदर्शन में चल रही है। संस्था के अनुयायी आज 7 करोड़ से भी अधिक हैं इसीलिए यहाँ से निकले सन्देश समाज सुधार में अहं भूमिका निभाते हैं। डेरा नशा मुक्ति, महिला सशक्तिकरण जैसी जमीन से जुड़ी कुरीतियों को 1948 से जड़ से ख़तम करने में अग्रसर है। बाबा राम रहीम जी कहना है कि कैसे एक प्रथा, जहाँ वधु के माता-पिता अपनी ख़ुशी से आशीर्वाद के रूप में अपनी बेटी को जीवन के अगले पड़ाव के लिए तोहफा दिया करते थे, आज उसे पैसे ऐंठ लेने का तरीका बना दिया गया है। ऐसे नीच कार्य करने वाले लोग न ही केवल गैर कानूनी काम करने वाले हैं, बल्कि सामाजिक व्यक्तियों के बीच बैठे राक्षस के समान हैं।
गुरू जी ने अपनी संगत से दहेज जैसी कुरीतियों से किनारा करने का प्रण करवाया है-न ही दहेज देना और न ही लेना। आज डेरा सच्चा सौदा के सत्संग के दौरान करोड़ों साध-संगत को भगवान का रूप मानते हुए, वर-वधु सादगी से विवाह करते हैं जिसमें दहेज तो दूर, बल्कि महंगे विवाह के नाम पर आडम्बरों से भी लोग दूर रहते हैं। डेरे की मानें तो राम नाम से जुड़ने पर एक व्यक्ति के अंदर आत्मबल पैदा होता है और उसी आत्मबल से उसके अंदर सादगी आती है इसलिए डेरे से जुड़े अनुयायी राम-नाम को जपने को बहुत तवज्जो देते हैं। जो घर आर्थिक रूप से इतने सक्षम नहीं कि विवाह आयोजन कर सकें, डेरा विवाह की पूरीज़िम्मेदारी भी लेता है एवं हर महीने हजारों शादियां इसी तरह से देश के लगभग हर प्रान्त में देखी जा सकती हैं। कैसे अच्छी संगती समाज सुधार देने में सक्षम है , डेरा सच्चा सौदा इसे सदा ही साबित करता आया है।
दहेज़ के खिलाफ ये जंग तब तक जारी रहेगी जब हम सभी अपने अंदर से अपने आप को बदलेंगे। समय के अनुसार, बदलाव प्रकृति का नियम है और अगर हम अपने अंदर बदलाव नहीं करेंगे तो वो ही प्रकृति जो एक समय इंसानियत को बचा रही थी वो ही विनाश भी कर सकती है। हर इन्सान का कर्तव्य है कि चाहे लड़का हो या लड़की, दोनों को समान रूप से उनके अधिकार और सम्मान देने चाहियें तभी ये समाज उन्नति की ओर अग्रसर करेगा।
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